कभी कभी ही तो मन करता है
कि कहीं तो अकेलापन हो
इतनी भीड़ में
थोडा सा तो खालीपन हो
जब कभी जी में आये
तो पेड़ो के नीचे नीचे
उनकी छाँव में
धूल को जूते से उड़ाता
थोडा तो टहल लूँ
और जो मन करे
तो हवा से तेज़
उड़ जाऊं बिना रुके
या
ऐसी किसी जगह पे चला जाऊं
जहाँ मेरी पहचान न हो
न कोई वजूद हो
कोई निशान न हो
कबीर के 'निराकार'
का स्वाद भी तभी समझ में आता है
जब मंदिर कि घंटियों से
दिमाग सुन्न हो जाता है
चारो तरफ ये शोर...
क्यूँ नहीं थोड़ा सन्नाटा है
ज़िन्दगी में कभी कभी ही तो
वक़्त ठहर के जाता है
ये रोज़मर्रा कि बात तो है नहीं
हाँ पर
पर कभी कभी तो मन करता है...
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