कल रात सोने के पहले
एक दोस्त की कहानी पढ़ ली
लोग बच्चे से बड़े हो ही जाते हैं
कभी न कभी अपने पैरों पे खड़े हो ही जाते हैं
तब कभी
हम जैसे बूढों को भी "lack of transition " बड़ा खटकता है
क्या हम उम्र के पहले बूढ़े हो गए
यही बार बार दिमाग में अटकता है
अब दिमाग की बात यूँ चली तो बचपन की याद लाजिमी है
हर लम्हा ही तेज़ी से निकल जाता था
न कोई ठहराव था
मैं तो पानी की तरह फिसल जाता था
एक घडी यहाँ और दूसरी वह
हवा सा बहता था
कभी नानी की गोद
और कभी माँ के आँचल में छिपता निकलता था
ना मुस्कुराने वाले लोग बड़े डरावने से लगते थे
अब खुद से ही डर लगता है
पर जब कभी किसी बच्चे को बड़ा होते देखता हूँ
तो वही "Transition " याद आता है
फिर से वो बेहतरीन पल पीता हूँ
किसी और की कहानी में अपना जीवन जीता हूँ
धीरे से छुप के मुस्कुरा लेता हूँ
और अगला बच्चा जल्द बड़ा होगा
इसके इंतज़ार में अपनी सफेदी को काले से छुपा लेता हूँ
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