Monday, November 29, 2010

The touch of GOD

When you see a a single handed backhand, hit on top of the bounce of the ball, the arc begins from behind the left part of the twisted torso, meets the ball right in front of the ribs, the feet just so naturally defy gravity to hold that mid air balance and the follow through continues till you feel should the shoulder come out of the socket if stretched any further, the resultant shot finds a non existent route on the court creating an imposiibly sketchable acute angle to beat the reach of a player who people say can cover everything thrown at him, you know the man you have always loved for his game-is definitely back

Friday, November 12, 2010

याद है वो शाम!

याद है वो शाम जब तुम सफेदी को लपेटे पिछले दरवाज़े से बरबस ही मेरे घर में घुस आई थी?

हर तरफ लोग थे बेशुमार,

फिर भी मुझे सिर्फ तुम ही नज़र आई थी

आँखों के कोनो से झाँक झाँक के देखा किया था तुम्हे

एक सवाल था ज़हन में

सोचा आज पूछ लूं तुमसे.....

क्या तुम मेरी चोरी पकड़ पाई थी?

तुम्हारी चोटी से गिरा वो बालों का गुच्छा

आज भी मेरी किताब के पन्नो में मुस्कुराता है

आहिस्ते आहिस्ते बातें करता है मुझसे....

कान में फुसफुसाता है

मेरी हंसी पे वो भी हवा के झोंके सा लहराता है

मैं खामोश हो जाऊं तो वो भी बस पन्नों में सिमट जाता है

तुम्हारी वो तस्वीर जो बड़ी दूर से खीची थी मैंने

आँखें बंद करते ही सामने आ जाती है

सपनो के खटोले पे भी तुम आ बैठती हो हमेशा

क्यूँ कुछ बोलती नहीं..

बस होठों को हिला के चली जाती हो

आसमान में चाँद को हर रात मैंने नज़रंदाज़ किया है


मैं तो तारों को जोड़ के तुम्हारी शकल बनाता था...


घर की पिछली दीवार के पीछे सिर्फ सूरज नहीं उगता था

हर रोज़ साथ में चाँद भी आ जाता था

उस चिलमन से ......

जिसमे हर रोज़ तुम बैठा करती थी


मोहब्बत है मुझे


उन किताबों में खोने की कोशिश किया करती थी

दूर से ही मैं ये जान लेता था

तुम्हारी तमन्नाओं को छान लेता था

तुम्हारे चेहरे का इल्म नहीं था मुझे

झटके से साफ़ की हुयी यादों का साथ था

मेरे घर के किस कोने से तुम्हारे घर का कौन सा कोना दिखता है

इसमें मैं उस्ताद था

बड़ी मुश्किल से आज तुम मेरे साथ हो

फिलहाल तो दूर हो पर पता है कि हर पल मेरे पास हो

अगर कुछ अच्छा हुआ है तो वो तुम हो मेरे साथ

आँखें बंद करता हूँ तो महसूस करता हूँ

अपने हाथों में तुम्हारा हाथ

परेशानी में बस एक ही चेहरा याद आता है

तुम ना होती तो बेनाम हो जाता मैं


आज खुश हूँ...तुम्हारी वजह से ज़िन्दगी इनाम हो गयी है!!

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Tuesday, November 9, 2010

क्या दिन थे वो भी!

बर्फ की सीली से गिरते एक एक फाहे को क्या हसरत से देखता था

पानी से गीली रेत पर अपने पद चिन्ह पढता था

अपने सपाट हाथों में तकदीर की लकीर ढूंढता था

बालू के ढेर में अपना घरोंदा संजोता था

क्या दिन थे वो भी!



छुटपन में भी बड़े होने का आभास होता था

सब कुछ बुरा होने पर भी न मन उदास होता था

माँ की एक पुचकार टीचर के कई थप्पड़ों पर भारी थी

हर मंजिल जो सपने में देखी, वो हमारी थी

क्या दिन थे वो भी!



हर वक़्त उल्लास का माहौल होता था

बेफिक्र उन्मुक्त असीम आकाश का पंछी था मैं

ना कंधो पे भारी सी बैग का बोझ था

ना आँखों के नीचे ये काले निशान थे

क्या दिन थे वो भी!



रातें सोने के लिए हुआ करती थीं

सूरज के साथ दिन शुरू होता था

घर की पिछली दीवार के पीछे सूरज उगता था

छत के ठीक ऊपर हर रात चाँद आता था

क्या दिन थे वो!



शाम को भुने हुए चिवड़े और हलवा खाता था

आम के अचार के बिना खाना निगला नहीं जाता था

अब तो domino का पिज्जा खाता हूँ

उंगलियाँ चाटना तो छोडो उन्हें ढंग से गन्दा भी नहीं कर पाता हूँ

क्या दिन थे वो!



हर शाम वही पुरानी कहानी नए अंदाज़ में सुनता था और खो जाता था

नानी की लोरी सुनते सुनते वहीँ उसकी गोद में सो जाता था

हर तरफ सुकून था पर समझ नहीं पाता था

अब तो बस समझ ही पाता हूँ

क्या दिन थे वो!

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