Sunday, June 22, 2014

मेरी लाल पतंग

मेरी लाल पतंग 
हवा में इतरा इतरा के उड़ती थी 
कभी बल खाती 
कभी लहराती 
क्या क्या कमाल वो करती थी 
तब उसके धागे पे 
कोई मांझा नहीं लगा था 
वो बस उड़ उड़ के रहती थी 
ना कटती थी 
ना काटती थी 
फिर एक दिन
उड़ते उड़ते
किसी मांझे वाली पतंग ने
मेरी पतंग को काट दिया
उसकी उन्मुक्त उड़ान को
कुछ टुकड़ो में बस बाँट दिया
कई साल गुज़र गए
अब मैं कई पतंगें उड़ाता हूँ
इनके धागे में
अच्छे से अच्छा मांझा लगाता हूँ
पर वो उड़ान फिर मिली नहीं
वो मस्ती फिर आई नहीं
पतंगकी पूँछ फिर लहराई नहीं
वो ऊंचाई फिर दिखी नहीं
जो सोनू की बालकनी से दिखती थी
बस अब भी
चलते चलते कुछ शाखों में झाँक लेता हूँ
कि शायद
मेरी लाल पतंग
कही अटकी फिर मिल जाएगी