Tuesday, November 9, 2010

क्या दिन थे वो भी!

बर्फ की सीली से गिरते एक एक फाहे को क्या हसरत से देखता था

पानी से गीली रेत पर अपने पद चिन्ह पढता था

अपने सपाट हाथों में तकदीर की लकीर ढूंढता था

बालू के ढेर में अपना घरोंदा संजोता था

क्या दिन थे वो भी!



छुटपन में भी बड़े होने का आभास होता था

सब कुछ बुरा होने पर भी न मन उदास होता था

माँ की एक पुचकार टीचर के कई थप्पड़ों पर भारी थी

हर मंजिल जो सपने में देखी, वो हमारी थी

क्या दिन थे वो भी!



हर वक़्त उल्लास का माहौल होता था

बेफिक्र उन्मुक्त असीम आकाश का पंछी था मैं

ना कंधो पे भारी सी बैग का बोझ था

ना आँखों के नीचे ये काले निशान थे

क्या दिन थे वो भी!



रातें सोने के लिए हुआ करती थीं

सूरज के साथ दिन शुरू होता था

घर की पिछली दीवार के पीछे सूरज उगता था

छत के ठीक ऊपर हर रात चाँद आता था

क्या दिन थे वो!



शाम को भुने हुए चिवड़े और हलवा खाता था

आम के अचार के बिना खाना निगला नहीं जाता था

अब तो domino का पिज्जा खाता हूँ

उंगलियाँ चाटना तो छोडो उन्हें ढंग से गन्दा भी नहीं कर पाता हूँ

क्या दिन थे वो!



हर शाम वही पुरानी कहानी नए अंदाज़ में सुनता था और खो जाता था

नानी की लोरी सुनते सुनते वहीँ उसकी गोद में सो जाता था

हर तरफ सुकून था पर समझ नहीं पाता था

अब तो बस समझ ही पाता हूँ

क्या दिन थे वो!

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