Thursday, June 14, 2012

Ye sali Zindagi

हर शाम अब एक जैसी ही दिखती है
भूख नहीं बस प्यास लगती है
शहर के शोर में जैसे खोने का एहसास होता है
बेचते बिकते
 इंसान को इंसान न होने का आभास होता है
कहने को सीखने का दंभ भर सा लेता हूँ
हर रात सोने के पहले 
दिन भर कुछ कर सा लेता हूँ
कभी खाता और कभी बस पी लेता हूँ
कुछ ग़म कुछ खुशियाँ जी लेता हूँ
सपने जैसे कुछ कौड़ियों के तले सांस ले लेते हैं
जिन्हें गिन के हम कभी कभी जी लेते हैं
पर धड़कन कहती है
धीरे से फुसफुसाती है rather
अपने सपनो को मरने न देना
खुद सडना पर उन्हें 
सड़ने न देना
इन्ही धडकनों के साथ 
मैं भी फुसफुसाता हूँ
मूक दर्शक हूँ पर 
कभी कभी बोल जाता हूँ
इसके पहले कि 
कुचली अभिलाषाएं जाग जाएँ
मेरी अंतरात्मा को जन्झोर के जगाये
अब सो जाता हूँ 
अब तो बस रातों को कपडे पहनता हूँ
कल सुबह फिर से निर्वस्त्र हो जाऊंगा 
कि कल फिर से मण्डी ने बुलाया है