हर शाम अब एक जैसी ही दिखती है
भूख नहीं बस प्यास लगती है
शहर के शोर में जैसे खोने का एहसास होता है
बेचते बिकते
इंसान को इंसान न होने का आभास होता है
कहने को सीखने का दंभ भर सा लेता हूँ
हर रात सोने के पहले
दिन भर कुछ कर सा लेता हूँ
कभी खाता और कभी बस पी लेता हूँ
कुछ ग़म कुछ खुशियाँ जी लेता हूँ
सपने जैसे कुछ कौड़ियों के तले सांस ले लेते हैं
जिन्हें गिन के हम कभी कभी जी लेते हैं
पर धड़कन कहती है
धीरे से फुसफुसाती है rather
अपने सपनो को मरने न देना
खुद सडना पर उन्हें
सड़ने न देना
इन्ही धडकनों के साथ
मैं भी फुसफुसाता हूँ
मूक दर्शक हूँ पर
कभी कभी बोल जाता हूँ
इसके पहले कि
कुचली अभिलाषाएं जाग जाएँ
मेरी अंतरात्मा को जन्झोर के जगाये
अब सो जाता हूँ
अब तो बस रातों को कपडे पहनता हूँ
कल सुबह फिर से निर्वस्त्र हो जाऊंगा
कि कल फिर से मण्डी ने बुलाया है